सांप्रदायिकता : एक अभिशाप
सांप्रदायिकता : एक अभिशाप
भूमिका: भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। वास्तव में देखा जाए तो यही धर्मनिरपेक्षता भारत की पहचान है, जहाँ विभिन्न धर्म एवं संप्रदाय अपनी धार्मिक आस्था और विश्वास से अपने धर्म का पालन करते हैं और दूसरे धर्म को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। यहाँ पर जितने धर्मो को मानने वाले लोग रहते हैं उतने संभवत: विश्व के किसी अन्य देश में नहीं है। सांप्रदायिकता का अर्थ सांप्रदायिकता से तात्पर्य किसी धर्म एवं भाषा से है जिसमें किसी समूह विशेष के हितों पर बल दिया जाता है। जब कोई धर्म, संप्रदाय अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है तब सांप्रदायिकता का जन्म होता है जो समाज के लिए चालक और देश की उन्नति में बाधक बनती है।
राजनीति और सांप्रदायिकता: पद्यपि भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है फिर भी भारतीय राजनीति धर्म-समदायों से विशेष रूप से प्रभावित रही है। विभिन्न धर्मों के नाम पर अपने राजनीतिक दल बना लेना, राष्ट्रहितों को ध्यान में न रखकर राजनीति से अपना स्वार्थ सिद्ध करना, दंगे भड़काना, रक्तपात मचाना, हिंसा करना आदि सब राजनीति से प्रेरित होकर ही किया जाता है अन्यथा मजहब नहीं सिखाता आपस में बैररखना।' धर्म किसी को बाँटता नहीं, आपस में जोड़ता है। यहाँ तक कि शिक्षा का क्षेत्र भी अब राजनीति के कारण सामदायिकता से अछूता नहीं रहा।
सांप्रदायिकता के दुष्परिणामः साप्रदायिकता के कारण आज चारों और भेदभाव, नफरत और कटुता का जहर फैलता जा रहा है। इसके फलस्वरूप समाज में नैतिकता, मानवता, सहृदयता और शिष्टता जैसे गुण दिखाई नहीं देते। सद्विचार और अच्छे कर्तव्य तो जैसे निरीह बनकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। पारस्परिक संबंधों में मन-मुटाव आ जाता है। हर जगह दुराचार दिखाई देता है। अनेक देशों का विभाजन भी सांप्रदायिकता के जहर से हुआ है।
समाधान: सांप्रदायिकता मानवता के लिए अभिशाप है। आज केवल भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में साप्रदायिकता का जहर फैल चुका है। यह देश की आतंरिक शक्ति को ही नहीं विश्व की शांति को भी भंग करती है। अतः अपने धर्म संपदाय के नाम पर तुच्छ स्वार्थी की पूर्ति न करके राष्ट्रहितों को ध्यान में रखना चाहिए। भारत में विविधता है इसलिए जाति, धर्म, लिंग, संप्रदाय, भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। शिक्षा एवं शिक्षण संस्थाओं में आध्यात्मिक मूल्यों एवं आदर्शों का समावेश किया जाना चाहिए। सभी धर्मों में सद्भावना, आस्था और विश्वास बनाए रखना चाहिए।
निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि धर्म के ठेकेदारों और राष्ट्रीय नेताओं का दायित्व बनता है कि संकीर्ण विचारों का त्याग
करके वे अपना दृष्टिकोण व्यापक बनाएं, देश हितों को सर्वोपरि रखें तथा लोकतांत्रिक आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना करें, तभी सच्चे अर्थो में भारत धर्मनिरपेक्ष कहलाएगा और हम गर्व से कह सकेंगे "हिंदी हैं हम वतन है। हिंदोस्ताँ हमारा।'
बाल-श्रम की समस्या
बाल-श्रम की समस्या
भूमिका: "जिस देश के बच्चों का भविष्य नहीं होता,
उस देश का भी अपना कोई भविष्य नहीं होता।"
यह वास्तव में सत्य है कि देश एवं राष्ट्र के स्वर्णिम भविष्य के निर्माता उस देश के भावी बच्चे होते है। राष्ट्र को उमति बच्चों की शिक्षा, पालन-पोषण, शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास पर निर्भर करती है। ये बच्चे देश की धरोहर होते हैं।
समस्या का मूल कारण: बाल श्रम की समस्या का मूल कारण भारत में निरंतर बढ़ती जनसंख्या और गरीबी है। जब धनाढ्य परिवार के बच्चे अपने बैग कंधे पर लेकर विद्यालय पढ़ने जाते हैं तब गरमी सरदी बरसात में गरीबी से वस्त में बच्चे कूड़े के ढेर पर पहुंचकर बीन बीनकर पेट भरने के लिए अपने परिवार की सहायता करते हैं। अपना परिवार चलाने के लिए इनके माता-पिता इन्हें कुछ रुपयों के लिए बेच देते है या फिर रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे प्रांतों में भेज देते हैं।
भयावह स्थिति: बाल श्रम एक अत्यंत भयावह समस्या बन चुकी है। बच्चे जिस आयु में खेल-खिलौने से खेलते हैं. दादी-नानी की कहानियाँ सुनते है, यहाँ से बाल-श्रमिक फैक्ट्रियों, कारकानी उद्योगों, छोटी-मोटी दुकानों में 15 से 16 घण्टे काम करके मालिकों को डाँट फटकार और मार सहन करते हैं। खाने के नाम पर इन सूखी रोटियाँ मिलती है, इनका शोषण किया जाता है। खतरनाक उद्योगों व कार्यों में जबरन इने लगा दिया जाता है जिसके कारण गंभीर चोट, जलना, दमा, टी.बी. तथा अनेक हादसों का शिकार होकर ये दम तोड़ देते है या बीमार को मृत्युपर्यंत झेलते हैं।
सरकार व अन्य सामाजिक संगठनों का दायित्व: ऐसे में सरकार व अन्य सामाजिक संगठनों का पूर्ण दायित्व बनता है कि श्रमिकों को दुर्दशा या ठोस कदम उठाएँ। भारत सरकार के उच्चतम न्यायालय द्वारा लिया गया यह फैसला सराहनीय है कि बाल-श्रमिक प्रथा को बंध करते हुए 'बाल-श्रमिक पुनर्वास एवं कल्याण कोष' बनाया जाए। उनसे मजदूरी न करवाई जाए और 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा अनिवार्य कर दी जाए तथा निशुल्क शिक्षा दी जाए। यहीं नहीं, सरकार द्वारा फैक्ट्री, उद्योग, खानों में काम करने वाले बाल मजदूरों को सेवाओं, कार्यदशाओं, कार्य-धण्डे, मजदूरी दर आदि को नियमित बनाने के लिए अनेक अधिनियम बनाए गए। 1966 में बाल-श्रमिक कानून बनाया गया। जिसमें बाल मजदूरों का शोषण करने वालों के विरुद्ध कठोर दंड का विधान रखा गया। बाल-श्रम उन्मूलन में अनेक गैर-सरकारी संस्थाओं को भूमिका भी महत्वपूर्ण है। वर्तमान में 124 संगठन सक्रिय है जिनमें तमिलनाडु राज्य में सर्वाधिक सक्रिय संगठन है। इसके बाद उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार, आध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, उड़ीसा और महाराष्ट्र का स्थान है।
उपसंहारः इस प्रकार सरकारी व गैर सरकारी संगठनों द्वारा अनेक योजनाएँ बनाई जा रही है परन्तु जब तक इन योजनाओं को दुढ़तापूर्वक लागू नहीं किया जाएगा तब तक बाल श्रम की समस्या पर नियंत्रण नहीं हो सकता। इसके साथ ही नोबेल पुरस्कार प्राप्त कैलाश सत्यार्थी जैसे अनेक समाज-सेवकों को आगे बढ़कर लाखों-करोड़ों बचपनों को संवारना होगा जिनके भविष्य में देश और संपूर्ण विश्व का विकास निहित है।
भूमंडल तापन (ग्लोबल वार्मिंग)
भूमंडल तापन (ग्लोबल वार्मिंग)
भूमिका: प्रकृति मानव की सहचरी है। प्रकृति ने प्राणीजगत को स्वच्छ पर्यावरण और स्वस्थ वातावरण दिया परन्तु मनुष्य ने विकास और उन्नति के नाम पर प्रकृति के स्वाभाविक प्रवाह को बाधित कर दिया। मनुष्य अपने क्षणिक सुखा व झूठे दम की पूर्ति के लिए वृक्षों का हनन कर रहा है और दूसरे देशों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हथियार बना रहा है जिसके फलस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग और पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण: पर्यावरण परिवर्तन जिस तेजी से बदल रहा है यह एक 'तापयुग' की आहट है। पौन-पीस' नामक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन की रिपोर्ट के अनुसार पिछले १४० वर्षों के दौरान पृथ्वी के औसत तापमान में ३ ०.६ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। लेकिन वर्तमान में इस दर में चिंताजनक तेजी आई है। सन् २१०० तक पृथ्वी के औसत तापमान में तीन डिग्री सेल्यियस वृद्धि और हो सकती है और इस वृद्धि से होने वाले दुष्प्रभावों का भयंकर परिणाम पृथ्वी और पृथ्वीवासियों को झेलना पड़ा सकता है। बायुमण्डल की रक्षा कवच ओजोन परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी को बचाती है जो पृथ्वी पर रहनेवाले प्राणियों के लिए अत्यंत है। डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, मोथेन आदि जैसे तापमान में वृद्धि का कारण बनती है, नवीनतम जानकारी के अनुसार इस हानिकारक गैसों के परिणामस्वरूप ही अंटार्कटिका क्षेत्र के ओजोन परत में छिपाया गया है जिससे पृथ्वी गरम हो रही है।
दुष्प्रभाव: ग्रीनपीस' की एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी के तापमान बढ़ने का विश्वव्यापी प्रभाव दिखाई देने लगा है। एक डिग्री सैल्सियस की वृद्धि से पातक बीमारियाँ, दमा, एयरबोर्न एलर्जी और महामारी फैलने वाले फोटो और जीवों में वृद्धि हो सकती है। शारीरिक और मानसिक बीमारियाँ तथा स्वधा संबंधी कैंसर तक हो सकता है भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम और फिलीपिन आदि एशियाई देशों में जलवायु परिवर्तन महराता जा रह है। मध्य यूरेशिया तथा उत्तरी अमेरीका को वायु में शुष्कता बढ़ने पर अंटार्कटिक और आर्कटिक ध्रुवों के विशाल हिमखंड के पिघलने की संभावना बढ़ने लगी है जिससे समुद्र का जलस्तर एक मीटर तक ऊँचा हो जी बहुत शोचनीय है।
उपाय: पिछले दो ढाई दशकों में विभिन्न राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पृथ्वी के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों में गंभीरता से इस समस्या को उठाया गया है। हाल में हुए बर्लिन में संपन पर्यावरण सम्मेलनों में इस मुद्दे पर सार्थक बहस भी हुई। पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए विश्वव्यापी ठोस व कड़े कदम उठाने होंगे तापमान को कम करने वाले कारक जैसे हरीतिमा संवर्धन के लिए उपाय करने होगे।
उपसंहारः इस ग्लोबल वार्मिंग से न केवल मानव ही प्रभावित है बल्कि जड़ एवं जीव सभी इसके दुष्प्रभाव से आक्रांत हुए हैं। अत: हमारा प्रथम कर्तव्य बनता है कि पर्यावरण के प्रति हम जितना शोध जागरूक होंगे उतना ही अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेंगे, अन्यथा अतिवृष्टि, मौसम चक्र, बर्फ खंडों का पिघलना आदि के चक्रव्यूह फंसते जाएँगे। कहा भी है 'जब जागो तभी सवेरा' अतः ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर मिलकर इस विश्वव्यापी समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाने होंगे।
योग का महत्व वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
योग का महत्व वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
भूमिका: योग एक प्राचीन भारतीय जीवन-पद्धति है जो तन-मन और अनुशासित जीवन जीने की कला सिखाता है। योग और अध्यात्म हमारे भारतीय मुद्राओं की वह पावन धरोहर है जिसमें व्यक्ति के चिंतन को, भावनाओं को बदलने की अद्वितीय क्षमता है और कहा भी है ""योग कर्मसु कौशलम्" अर्थात् योग से ही कर्मों में कुशलता आती है। योग मात्र एक व्यायाम की विधा नहीं अपितु जीने की एक आध्यात्मिक तकनीक है। यह एक प्रयोगिक विज्ञान है।
योग की परंपरा :हमारे प्राचीन ऋषियों मुनियों को चिंतनधारा ने निःसुत योग की परंपरा का वर्णन सर्वप्रथम उपनिषदों में किया है। लगभग 200 ई. पूर्व रचित महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में योगदर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन मिलता है। उनके योग नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) में से वर्तमान समय में तीन ही अंग प्रचलन में है- आसन, प्राणायाम और ध्यान भगवद्गीता में ज्ञान योग, ध्यानयोग और भक्तियोग का विशद वर्णन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद द्वारा वर्णित है। आगे चलकर बौद्धधर्म व जैनधर्म में योग को विशद व्याख्या की गई है। यहाँ तक कि योग बौद्ध धर्म के माध्यम से चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण-पूर्व एशिया और श्रीलंका तक पहुँचा।
योग का महत्व: आधुनिक समय में युवा और वृद्ध ही नहीं, बच्चे भी तनाव और चिंता से पस्त दिखाई देते हैं। जिसका मुख्य कारण है जल और वायु प्रदूषण, खाद्य-पदार्थों में मिलावट, फसलों में अनेक प्रकार की कीटनाशक औषधियों का प्रयोग में सभी स्वास्थ्य के लिए। सिद्ध हो रहे हैं जिसके फलस्वरूप उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा, हृदययात, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों में निरंतर वृद्धि हो रही है। ऐसे में योग ही एक ऐसा माध्यम है जिसे अपनी दिनचर्या में अपनाकर मनुष्य एक स्वस्थ जीवनयापन कर सकता है और रोगों से बचाव करके जीवन के तनाव से मुक्ति पा सकता है। कहा भी है- योगश्च चित्तवृत्तिः निरोष अर्थात् योग से ही मन की पिता को नियंत्रित किया जा सकता है। अपनी सोचने को प्रवृत्ति को सकारात्मक बनाया जा सकता है। योग से ही जीवन में अनुशासन, मन की एकाग्रचित्तता और शरीर को गतिशीलता मिलती है।
योग को सर्वमान्यताः सर्वप्रथम योग को परंपरा ऋषियों, मुनियों और संन्यासियों तक ही सीमित थीं। परन्तु जैसे-जैसे आधुनिक योग गुरुओं के माध्यम से जन-जन में जागृति आई और स्वास्थ्य के प्रति चेतना मबुद्ध हुई तो आज योग की वजा केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के अनेक देशों में फहराने लगी। पहली बार 11 दिसम्बर 2014 के दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस मनाने के लिए मान्यता दी 21 जून 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मानाया गया जो एक ऐतिहासिक दिन बन गया। इस अवसर पर 192 देशों और 47 मुस्लिम देशों में योग दिवस का आयोजन किया गया। भारत की राजधानी दिल्ली के राजपथ पर एक साथ 15985 लोगों मैंने योग का प्रदर्शन किया जिसमें बच्चे, युवा, सियाँ और वृद्ध सभी सम्मिलित हुए। इसके साथ हो 84 देशों के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। इस अवसर पर भारत ने विश्व रिकॉर्ड बनाकर 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में कीर्तिमान स्थापित किया।
उपसंहार: इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि योग और अध्यात्म को यदि अपनी दिनचर्या बना लिया जाए तो निश्चय ही मनुष्य स्वस्थ और प्रशमयित बनकर एक स्वस्थ समाज और देश का निर्माण कर सकता है। योग के द्वारा जने को कला को आज भारत में घर-घर में नहीं अपितु विदेशों में खूब अपनाया जा रहा है 21 जून अंतर्राष्ट्रीय दिवस को एक "मील का पत्थर कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय पहल पर हमारे माननीय वर्तमान प्रधानमंत्री जी ने योग की महत्ता को हमारी संस्कृति की विशेषता वसुधैव कुटुंबकम् को भावना को चरितार्थ किया है जो प्रशंसनीय है।
पर्यावरण प्रदूषण समस्या और समाधान
पर्यावरण प्रदूषण समस्या और समाधान
भूमिका: प्रकृति ने मानव को भरपूर वैभव दिया है। पेड़-पौधे, हरी-भरी वसुंधरा, नदियाँ, पर्वत, फूल-फल, वनस्पति जगत, प्राणी जगत शुद्ध जल, शुद्ध वायु शुद्ध पर्यावरण आदि परन्तु प्रारम्भ से ही मानव की प्रवृत्ति प्रकृति पर विजय पाने की रही है। इसी 'विजय' की प्रक्रिया को मानव ने वैज्ञानिक प्रगति और विकास का नाम दिया। यही विकास पर्यावरण को दूषित कर रहा है और एक विकराल समस्या का रूप धारण कर चुका है जिससे स्वयं मानव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।
प्रदूषण के प्रकार और हानियाँ प्रदूषण के मुख्यतः चार प्रकार है जो भूमंडल के पर्यावरण को हानि पहुँचा रहे हैं- 1. वायु प्रदूषण 2. जल प्रदूषण 3. ध्वनि प्रदूषण 4. भूमि प्रदूषण
1. वायु प्रदूषणः महानगरों में औद्योगिक क्रांति से वाहनों, कारखानों, उद्योगों के निरंतर बढ़ने से वायु मंडल में कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस का निरंतर निस्सारण हो रहा है जिसके कारण दूषित वायु में साँस लेना दूभर हो रहा है। इससे अस्थमा और दमा आदि बीमारियाँ बढ़ रही है। एयरकंडीशन और रेफ्रिजिरेटर से निकलने वाली गैसे पृथ्वी इर्द-गिर्द की 'ओजोन परत को हानि पहुंचा रही है जिसके कारण त्वचा संबंधी कैंसर आदि भयानक बीमारियों की संभावना बढ़ रही है। इतना ही नहीं, वायु प्रदूषण के कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है, जिससे मौसम चक्र पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
2. जल प्रदूषण: जल मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। मानव स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ जल का होना नितांत आवश्यक है। जल प्रदूषण से तात्पर्य है नदी, झीलों, तालाबों, भूगर्भ और समुद्र के जल में ऐसे पदार्थों का मिश्रण जो पानी को प्रयोग के अयोग्य बना देता जल प्रदूषण का मुख्य कारण कल-कारखानों से निकलने वाला रासायनिक कचरा है जो सीधे नदियों और तालाबों में छोड़ दिया जाता है। जिन नदियों और तालाबों का लोग पानी पीते थे उसी पानी में अब पशुओं को नहलाया जाता है। कपड़े धोए जाते है. मल-मूत्र विसर्जित किया जाता है जिसके कारण जल प्रदूषित हो रहा है और स्वास्थ्य को हानि पहुंचा रहा है। इसके कारण पीलिया, पेट संबंधी गंभीर बीमारियाँ उत्पन्न हो रही है।
3. ध्वनि प्रदूषण: ध्वनि प्रदूषण मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। इससे बहरापन, चिंता तथा अशांति जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप कल-कारखानों का वाहनों के हॉर्न का, साउडस्पीकर व कर्णभेदी संगीत का शोर मनुष्य की श्रवण शक्ति को क्षीण कर रहा है। यह शोर अनिद्रा, सिरदर्द, हृदय रोग, रक्तचाप और तनाव का कारण बन रहा है। इसे कम करने के लिए कुछ ठोस और सकारात्मक कदम उठाने चाहिए जैसे रेडियो, टी. बी. जैसे ध्वनि विस्तारक यंत्रों को कम आवाज में बजाना चाहिए तथा लाउडस्पीकर के आम उपयोग को प्रतिबंधित कर देना चाहिए।
4. भूमि प्रदूषण: भूमि को जंगलों से विहीन करना, भूमि कटाव, ऊँची-ऊँची गगनचुंबी इमारतों का रिहायशी और व्यावसायिक प्रयोग करना तथा फसलें उगाते समय अनेक प्रकार को रासायनिक खादों का प्रयोग करना आदि मानवजनित ऐसी क्रियाएँ है, जो निरंतर भूमि प्रदूषण को बढ़ा रही है
उपसंहार: निस्संदेह अब समय आ गया है कि पर्यावरण संतुलन के लिए ठोस और कड़े कदम उठाने होंगे जिसके लिए शहरीकरण पर रोक लगानी होगी, जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाना होगा, वाहनों का प्रयोग कम करना होगा। कल-कारखानों से निकलते धुएँ के लिए विशेष प्रबंध करने होंगे। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई को रोकना होगा तभी पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त होगा और मानव खुली हवा में साँस ले सकेगा।
यदि शुद्ध हो पर्यावरण,
यदि प्रबुद्ध हो हर आवरण:
भय दूर होगा प्रदूषण का
संतुलित होगा जीवन-मरण।
इस प्रकार प्रकृति से तालमेल बिठाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को रोकने के लिए सर्वप्रथम प्रत्येक देशवासी को जागरूक बनना होगा। सामाजिक संस्थाओं, सरकारी व गैरसरकारी संगठनों को पर्यावरण सुरक्षा के लिए पहल करनी होगी। तभी मानव अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकेगा।
विद्यार्थी और अनुशासन
विद्यार्थी और अनुशासन
भूमिका: काक चेष्टा बको ध्यानम् श्वान निद्रा तथैव च
अल्पाहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणम् ।।
अर्थात् विद्यार्थी को कौवे के समान चेष्टा वाला, बगुले के समान ध्यान बाला, कुत्ते के समान नोंदवाला, भूख से कम भोजन करने वाला और सदाचार का पालन करने वाला होना चाहिए। विद्यार्थी इन लक्षणों को धारण करके एक संपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करता है। विद्यार्थी जीवन की अवधि जानने, सीखने, अनुभव पाने के साथ परिष्कृत व्यक्तित्व गढ़ने की है जो प्रवृत्तियाँ और संस्कार इस अवधि में विकसित हो जाते है, वह जीवन पर्यंत बने रहते हैं।
अनुशासन का अर्थ एवं महत्व: अनुशासन का अर्थ है शासन अर्थात् व्यवस्था के अनुसार जीवन-यापन करना विद्यार्थी और अनुशासन का परस्पर गहरा संबंध है। यद्यपि अनुशासन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है परन्तु विद्यार्थी जीवन में इसके बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। शिक्षा जीवन के सर्वांगीण विकास का आधार है। यही यह काल है जिसमें विद्यार्थी में चरित्र व्यवहार और आचरण जैसा चाहे वैसा रूप दिया जा सकता है। जो आदतें इस आयु में एक नन्हें, कोमल पौधे के समान होती है वहीं वृक्ष बनकर भविष्य में जीवन को परिपक्व बनाती हैं। यही कारण था कि प्रचीन काल में गुरुकुल में रहकर विद्यार्थी कठोर अनुशासन का पालन करते थे और राष्ट्र एवं समाज के निर्माण में अपने मजबूत कंधों का सहारा प्रदान करते थे। हमारे भारत के स्वर्णिम अतीत का रहस्य यही था।
छात्रों में बढ़ती अनुशासनहीनता: सर्वप्रथम माता-पिता पर में शिक्षा व्यवस्था की आधारशिला रखते हैं। इसके अतिरिक्त समाज और आसपास का वातावरण भी बच्चे की आधारशिला को तैयार करने में सहायता प्रदान करता है। लेकिन यही आधारशिला यदि कमजोर हो, नौव की ईटे ही मजबूत न हो तो भवन भी कभी मजबूत नहीं बन सकता। विद्यार्थियों के कोमल मस्तिष्क पर बाहरी आकर्षण, चलचित्र, मोबाइल फोन, दूरदर्शन, कंप्यूटर गेम, फैशनपरस्ती जब अपना प्रभाव डालती है, तो वे दिगभ्रमित हो जाते हैं। जिसके कारण निरकुशता, अनुशासनहीनता, क्रोध, असहिष्णुता की भावना निरंतर बढ़ रही है। शिक्षा का उद्देश्य चरित्र संस्कार व नैतिक मूल्यों से भटक गया है।
उपाय: विद्यार्थियों को अनुशासित करने के लिए अनेक उपाय करने होंगे। इसके लिए शिक्षा पद्धति को रोजगारोन्मुख बनाना होगा, माता पिता को शिक्षा और संस्कारों के प्रति अधिक जागरूक रहना होगा। शिक्षको, अध्यापकों को विद्याथायों का जीवन संवारने और उत्कृष्ट बनाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी शिक्षा-संस्थानों को भी शिक्षा का व्यावसायीकरण न करके विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास को ही अपना लक्ष्य बनाना होगा। तभी देश और समाज के निर्माण में सभी का महत्वपूर्ण योगदान होगा।
उपसंहारः यहाँ विद्यार्थियों का भी परमकर्तव्य है कि वे अपने उत्तरदायित्व को समझें अपने कर्तव्यों और दायित्वों का अनुशासित होकर पालन करें। विद्यार्जन में ही अधिक से अधिक समय का उपयोग करें जिससे बड़े होकर अपने देश के एक सुशिक्षित, चरित्रवान, सभ्य नागरिक बन सकें।
कंप्यूटर का महत्व
कंप्यूटर का महत्व
भूमिका: कंप्यूटर को यदि कल्पवृक्ष की भांति माना जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। कंप्यूटर विज्ञान की ऐसी अनुपम उपलब्धि है जो पलक झपकते ही हमारी अनेक समस्याओं का त्वरित हल कर सकती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जहाँ मानवशक्ति और समय का अधिक से अधिक उपयोग होता था वहीं आज कंप्यूटर द्वारा सरलता से कुछ ही क्षणों में कार्य पूर्णता तक पहुँचाया जा सकता है। शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जो कंप्यूटर से अछूता रहा हो।
कंप्यूटर की उपयोगिता: कंप्यूटर में इंटरनेट के प्रयोग ने तो जैसे नई क्रांति उत्पन्न कर दी है। बैंकिंग सुविधाएँ रेलवे स्टेशन, मल्टी नेशनल कंपनियों, उडयन विभाग, चुनावी-मशीन, शिक्षा का क्षेत्र, स्वास्थ्य सेवाएं सभी पर कंप्यूटर का व्यापक प्रभाव और आवश्यकता दिखाईदेती है। आजकल हमारे किसान भी कंप्यूटर को सहायता से बेहतर बीज, खाद और फसल संबंधी जानकारियों का लाभ उठा रहे हैं। मौसम को भविष्यवाणियाँ सुनकर ही लोग पर्यटन स्थल का भ्रमण करने जाते हैं। इसकी उपयोगिता को देखते हुए देश के हर विद्यालय में इसे पाठयक्रम में सम्मिलित किया गया है।
कंप्यूटर पर नित नए खेलों से बच्चों का बौद्धिक विकास होता है। इतना ही नहीं लोग अब आध्यात्मिक केन्द्रों पर जाने की अपेक्षा अनेक क्रियाओं की जानकारी पर बैठे ही इसके द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। घर बैठे-बैठे हो वस्त्र परिधानों की खरीदारी, फल-सब्जियों को खरीदारी कर सकते हैं और व्यर्थ बाजारों की भीड़-भाड़ से मुक्ति पा सकते हैं। कंप्यूटर के माध्यम से वैज्ञानिक अनुसंधानों का स्वरूप ही बदल गया है। इसकी सहायता से लंबी-लंबी गणनाएँ की जाती है और उप को अंतरिक्ष में स्थापित कर अनेक जानकारियाँ ली जा सकती हैं।
कंप्यूटर के माध्यम से रोजगार के अवसर: आज विभिन्न उत्पादनों में तीव्र वृद्धि होने के कारण रोजगार के नए-नए अवसर भी प्राप्त हो रहे हैं। अतः कंप्यूटर की उपयोगिता सर्वव्यापी है। आज का कंप्यूटर मानव के लिए कल्पतरु और कामधेनु के समान बन गया है। चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या कोई कारखाना, कंप्यूटर के आने से रोजगार की दिशा में बहुत वृद्धि हुई है। बैंक में पैसे जमा करना निकालना बहुत आसान हो गया है। आज हर कार्यालय में कंप्यूटर की आवश्यकता है।
उपसंहारः वस्तुत: आधुनिक युग में कंप्यूटर को लोकप्रियता निर्विचार रूप से बढ़ रही है। भविष्य में इसको कार्यक्षमता में और वृद्धि की संभावना है। यद्यपि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अनेक व्यक्तियों का कार्य कंप्यूटर अकेले हो कर सकता है परन्तु रोजगार के नित नए अवसर भी इसी से मिल रहे हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब यह मनुष्य द्वारा संचालित यंत्र मनुष्य के अंग के समान आवश्यक हो जाएगा। क्योंकि कंप्यूटर ने धूम मचा दी है, जीवन में क्रांति ला दी है। घर की चारदीवारी में, दुनिया की सैर करा दी है।
विज्ञापन की दुनिया
विज्ञापन की दुनिया
भूमिका: जहाँ देखो विज्ञापन ही विज्ञापन टी वी रेडियो का स्विच ऑन करिए समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में देखिए, इंटरनेट-वेबसाइट पर देखिए या बसें, मेट्रो पूर्णतया विज्ञापनों के रंगीन चित्रों से भरपूर दिखाई देंगे। उनका सुंदर, मनोहर रूप मन को लुभाता है और मनुष्य विज्ञापन देखकर उस उत्पाद को खरीदने के लिए तत्पर हो उठता है।
विज्ञापन एक कला: विज्ञापन एक कला है। उत्पादनकर्ता अपनी वस्तु को बेचने के लिए नित नए ढंग से अनोखा प्रदर्शन कर विज्ञापन माध्यम से लोगों को लुभाता है और वास्तविकता से दूर उसकी खूबियों के कार्यो से ऐसी भ्रामक स्थिति उत्पन्न कर देता है कि ग्राहक पा उपभोक्ता बिना उसकी गुणवत्ता जाने तुरन्त खरीदने के लिए ऑर्डर दे देता है। उत्पादक अपनी वस्तुओं को अधिक लोकप्रिय बनाने सुप्रसिद्ध के लिए अभिनेता, अभिनेत्रियों और खिलाड़ियों का रोचक ढंग से प्रभावपूर्ण उपयोग करते हैं।
विज्ञापन की आवश्यकता: जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ लोगों की आवश्यकताओं को देखते हुए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन बढ़ने लगा। ऐसे में अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए विज्ञापनों की आवश्यकता पड़ी और अपनी वस्तुओं की श्रेष्ठतम दिखाने की होड़-सी लग गई। हे वह चिप्स, पिज्जा, बर्गर, मैगी हो या पेय पदार्थ लिम्का, माजा सेवनअप, खाद्य पदार्थों में थी, चावल, आटा, नमक हो या इलैक्ट्रॉनिक्स सामान,शृंगार के साधन हो या स्वास्थ्य सेवाएं, कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं रहा जहाँ विज्ञापन का प्रयोग नहीं हो रहा हो। परन्तु उत्पादक अपनी वस्तु बेचने के लिए ऐसी भ्रामक स्थिति उत्पन्न कर देता है जो गुणवत्ता और यथार्थ से दूर होती है।
उपभोक्ता की जागरुकता: बाजारों की प्रतियोगिताओं की दौड़ में उपभोक्ता का सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग करके ही कोई सामान खरीदें और बैंड के छलावे में न आएँ। यहाँ तक कि संसद में भी ऐसा विधेयक लाने की मांग उठी है कि जो प्रतिष्ठित व्यक्ति स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक वस्तुओं का विज्ञापन दे रहे है उनके लिए भी सजा और दंड का प्रावधान हो
उपसंहार: उत्पादनकर्ता आज इस प्रतियोगिता की दौड़ में अपनी वस्तु बेचने के लिए भरसक प्रयत्न करेगा ही वह बाहरी चकाचौंध से प्रभावित करने का प्रयास करेगा परन्तु उपभोक्ता को सोच-समझकर उसको गुणवत्ता को परखकर ही कोई निर्णय लेना चाहिए क्योंकि अंत में यह धोखा और छल उपभोक्ता की जेब पर ही भारी पड़ेगा।