संक्षिप्त व्याख्यामूलक प्रश्न –
1. राम बिन संसै गाँठि न छूटै ।
काम क्रोध मोह मद माया, इन पंचन मिलि लूटै ॥
प्रश्न : पंच विकार क्या करते हैं ?
उत्तर : संत रैदास कहते हैं कि राम (ईश्वर) की कृपा के बगैर इस संसार में संशयरूपी गांठ नहीं छूट सकती हैं। पंच विकार अर्थात् काम, क्रोध, मोह, मद तथा माया ही इस संसार में व्यक्ति का सर्वस्य लूट लेते हैं
प्रश्न: प्रस्तुत पंक्ति का प्रसंग सहित आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : प्रस्तुत पद में रैदास राम नाम की महत्ता का गुणगान करते हुए कहते हैं कि बिना राम (ईश्वर) का नाम लिए मनुष्य संशय से नहीं छूट सकता है। काम, क्रोध, मोह, मद और माया ये पाँचों विकार मिलकर मनुष्य को लूट लेते हैं अर्थात् ईश्वर नाम से विमुख कर देते हैं
2. नरहरि चंचल मति मोरी
कैसे भगति करों मैं तोरी ॥
प्रश्न: प्रस्तुत पंक्तियों के रचनाकार का नाम लिखिए।
उत्तर : रचनाकार संत कवि रैदास हैं।
प्रश्न : अंश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।
उत्तर : प्रस्तुत अंश में संत रैदास अपने मन की स्थिति का वर्णन करते हुए ईश्वर से कहते हैं कि मेरी मति तो चंचल है और इस चंचल मति के सहारे भला आपकी भक्ति कैसे की जा सकती है। कहने का भाव यह है कि जब तक मन एकाग्र नहीं होता तब तक उसे प्रभु भक्ति में नहीं लगाया जा सकता ।
3. प्रभु जी तुम चंदन हम पानी । जाकी अंग-अंग बास समानी ।
प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा ।।
प्रश्न : प्रस्तुत अंश के कवि का नाम लिखें ।
उत्तर : प्रस्तुत अंश के कवि संत रैदास हैं
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : प्रस्तुत अंश में रैदास ईश्वर की आराधना करते हुए कहते हैं कि आप चंदन की तरह सुंगधयुक्त हैं और मैं पानी की तरह गंधरहित हूँ । आपकी सुगंध मेरे अंग में समायी हुई है आप तो उस काले बादल के समान हैं जिसे देखकर मेरा मनरूपी मयूर नाच उठता है ।
4. प्रभु जी तुम दीपक हम बाती । जाकी जोति बरै दिन राती ।
प्रभु जी तुम मोती हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा ।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा ऐसी भक्ति करे दासा ।।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश किस कविता से उद्धृत है ?
उत्तर : प्रस्तुत पद्यांश 'रैदास के पद' से उद्धृत है।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में संत रैदास ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति भावना प्रकट करते हुए कहते हैं कि आप लिए वैसे ही हैं जैसे चाँद के लिए चकोर आप दीपक तथा में बाती हूँ। आपके बिना में अधूरा हू। आपका प्रकाश इस संसार में फैला हुआ है प्रभु, आप मोती तथा मैं धागा हूँ। मैंने अपने-आपको आपकी भक्ति में ही विलीन कर दिया है जैसे सोने में सुहागा विलीन हो जाता है। हे प्रभु, आप मेरे स्वामी हैं तथा मैं आपका से हूँ। इसी सेवक के भाव से मैं आपकी भक्ति करता हूँ।
5. तू मोहि देखै, हौं तोहि देखूं, प्रीति परस्पर होई ।
तू मोहि देखें, हौं तोहि न देखूं, इहि मति सब बुधि खोई ।।
प्रश्न: प्रस्तुत अंश किस कविता से लिया गया है ?
उत्तर: प्रस्तुत अंश 'रैदास के पद' से लिया गया है
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : संत रैदास कहते हैं कि हे ईश्वर जब तक हम एक-दूसरे को परस्पर नहीं देखते हैं तो भला प्रेम है
हो सकता है। आप तो मुझे देखते हैं पर मैं आपको नहीं देखता । अपनी इसी बुद्धि के कारण मैं अपनी सुध बैठा हूँ ।
6. नख पसेद जाके सुरसुरी धारा, रोमावली अठारह धारा ।
चारि बेद जाकै सुमृत सासा, भगति हेत गावै रैदासा ।।
प्रश्न: कवि का नाम लिखें
उत्तर : कवि संत कवि रैदास हैं ।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : प्रस्तुत अंश में संत रैदास कहते हैं कि जिसके नख के पसीने की बूँद से गंगा प्रवाहित होती है जिनकी रोमावली से अठराह पुराण उत्पन्न हुए हैं, जिनकी सांसों में चारों वेद समाये हुए हैं ऐसे ईश्वर की भक्ति करता हूँ, उन्हीं के गीत गाता हूँ ।
7. सब घट अंतरि रमसि निरंतरि, मैं देखत हूँ नहीं जाना।
गुन सब तोर मोर सब औगुन, क्रित उपकार न माना।।
प्रश्न : रचना के कवि का नाम लिखें ।
उत्तर : इस रचना के कवि संत रैदास हैं ।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें
उत्तर : प्रस्तुत अंश में संत रैदास कहते हैं कि ईश्वर का वास तो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में है लेकिन में अज्ञानतावश आपको नहीं देख पाया । आप तो गुणों की खान हैं और मैं गुणहीन हूँ, इसलिए मैंने आपके द्वा किए गए उपकार को नहीं माना ।
8. मैं तैं तोरि मोरि असमझ सों, कैसे करि निसतारा ।
कहै 'रैदास' कृस्न करुणां मैं, जै जै जगत अधारा
प्रश्न: कविता का नाम लिखें।
उत्तर : कविता का नाम 'रैदास के पद' है
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें
उत्तर : प्रस्तुत अंश में संत रैदास कहते हैं कि मैं इस संसार में अपने-पराये के भेद-भाव में पड़ा रहा। बुद्धि के रहते भला मुझे मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है। मेरे कृष्ण तो करुणामयी हैं, वही इस जगत के आधार हैं । ऐसे करुणामयी कृष्ण की मैं जय-जयकार करता हूँ ।
9. पढ़ें गुनें समझ जी श्री अनमै भाव न दरसे
लोहा हर न होइ घूँ कैसें, जो पारस नहीं परसै ।।
प्रश्न: रचनाकार तथा रचना का नाम लिखें।
उत्तर : रचनाकार भक्तिकाल के संत कवि रैदास हैं तथा रचना का नाम 'रैदास के पद'
प्रश्न: प्रस्तुत पंक्तियों का भावार्थ लिखें।
उत्तर: प्रस्तुत पंक्तियों में संत रैदास कहते हैं कि इस संसार में केवल पढ़ने-लिखने से ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, सच्चा ज्ञान तो अनुभव से ही प्राप्त किया जा सकता है। अनुभव के बिना मनुष्य ज्ञानी नहीं बन सकता ठीक वैसे ही जैसे पारस के स्पर्श के बिना लोहा सोने में नहीं बदल सकता।
10. सिव सनकादिक अंत न पाया, खोजत ब्रह्मा जनम गंवाया ।
तोडूं न पाती पूज न देवा, सहज समाधि करौं हरि सेवा ।।
प्रश्न: रचनाकार तथा रचना का नाम लिखें।
उत्तर: रचनाकार संत रैदास हैं तथा रचना का नाम 'रैदास के पद' है।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : संत रैदास कहते हैं जिसका आदि अंत शिव तथा सनक आदि भी न पा सके, जिसे खोजते खोजते ब्रह्मा ने अपना जन्म गंवा दिया। मैं अन्य लोगों की तरह आप पर न फूल-पत्ते चढ़ाता हूँ। मैं तो केवल सहज समाधि के द्वारा ही आपकी उपासना करता हूँ।
दीर्घउत्तरीय प्रश्न —-
1. 'रैदास के पद' नामक पाठ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर : रैदास मूलतः एक संत कवि थे। उनकी कविताएँ भक्ति- भावना से भरी हैं। उनका स्वभाव अत्यंत सहज एवं सरल था। अतः उनको भाषा और भाव भी सरल हैं। उनके पदों में समाज सुधार की भी सुगंध मिलती है। प्रस्तुत पाठ में उनके पाँच पद संकलित हैं जिनका सारांश क्रम निम्नलिखित है, प्रथम पद में कवि ने भक्त और भगवान के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्धों पर प्रकाश डाला है। संत रैदास कहते हैं कि हे प्रभु! हमारे-आपके सम्बन्ध अटूट हैं। रैदास अपने से भगवान को श्रेष्ठ मानते हुए उन्हें चन्दन, घन, चन्द्रमा, दीपक, मोती और सोना मानते हैं और अपने को क्रमशः पानी, मोर, चकोर, बाती, धागा तथा सोहागा के रूप में मानते हैं। इस प्रकार रैदास भगवान को अनन्य मानते हैं।
दूसरे पद में रैदास भक्ति के मार्ग में बाधा डालने वाली मन की चंचलता के बारे में कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपकी भक्ति कैसे करूं? मेरा चित्त हो तो चंचल है। एक-दूसरे को परस्पर देखने से प्रीति बढ़ती है, पर मैं तो आपको देखे बिना ही अपनी प्रीति बढ़ाना चाहता हूँ। रैदास अपने को गुणहीन और ईश्वर को गुणों का आगार मानते हैं। वे कहते हैं कि मैं आपके किए गये उपकार को भी नहीं मानता। अन्त में रैदास श्रीकृष्ण को जगत का आधार मानकर उनकी जय-जयकार करते हैं।
तृतीय पद में रैदास निरंकार ईश्वर की व्यापकता और अपनी लघुता की बात करते हैं। वे भगवान को आनन्द स्वरूप मानते है और कहते हैं कि आप आकाश से पाताल तक कण-कण में व्याप्त हैं। आपको किस प्रकार संपुट या मन्दिर में सीमित किया जा सकता है। आप इतने गहन और गम्भीर हैं कि शिव, आदि ऋषि तथा ब्रह्मा भी आपका आदि और अन्त नहीं जान सके। मेरे पास तो पूजा की कोई सामग्री भी नहीं है। मैं तो मात्र सहज समाधि से आपकी पूजा कर सकता हूँ। नख के द्रव से सुरसरि अर्थात् गंगा बहती हैं, रोमकूप में अठारहों पुराण समाए हैं, चारों वेद आपकी सहज श्वांस की तरह है।"
चतुर्थ पद में रैदास यह मानते हैं कि राम की कृपा के बिना मनुष्य संशय से मुक्त नहीं हो सकता। काम, क्रोध, मोह और माया जकड़ा झूठे ही को ज्ञानी औरयोगी मानने लगता है और उसके यह भाव कभी नष्ट नहीं होते संत रैदास कहते है कि जब तक ईश्वर को अनुभव द्वारा जानने का प्रयास नहीं किया जायेगा तब तक सब ज्ञान बेकार है। जिस प्रकार लोहा पारस पत्थर के संसर्ग में आये बिना सोना नहीं हो सकता, उसी प्रकार ईश्वर की कृपा के बिना मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। अतः मेरे एकमात्र आधार नरहरि मेरे ऊपर कृपा करें।
पाँचवें और अन्तिम पद में रैदास मन को चेताते हुए कह रहे हैं कि जाति से कोई उच्च पद या ईश्वर की अनुकम्पा नहीं पा सकता। जबतक भक्ति की भावना दृढ नहीं होगी, तबतक ईश्वर की कृपा नहीं हो सकती। उच्च कुल का होने पर भी जिसे राम कथा प्रिय नहीं लगती वह चण्डाल के समान है। लोग बेकार दूसरों में गुणदोष खोजते हैं ईश्वर कृत तीनों लोक पवित्र है। अन्त में संत रैदास अजामिल, गणिका और गज जैसे पापियों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यदि दयालु प्रभु ने इनको मुक्ति दे दो तो निश्चय ही रैदास को मुक्त कर देंगे।
संक्षिप्त व्याख्यामूलक प्रश्न —
1. "विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं
केवल इतना हो करुणामय
कभी न विपदा में पाऊँ भय ।"
प्रश्न : रचना का नाम लिखें।
उत्तर : रचना का नाम 'आत्मत्राण' है।
प्रश्न: प्रस्तुत पंक्तियों का भावार्थ लिखें।
उत्तर : प्रस्तुत अंश में कविगुरु ईश्वर से यह निवेदन करते हैं कि उन्हें विपदाओं (मुसीबतों) से न बचाएं। वे उसपर इतनी कृपा करें कि जीवन में जब कभी भी विपदा आए तो उन्हें भय न हो। वे जीवन की विपदाओं का सामना बिना भय के सहज भाव से कर सकें।
2. दुःख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही
उस दिन ऐसा हो करुणामय,
तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय ।
प्रश्न: प्रस्तुत अंश के रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर : प्रस्तुत अंश के रचनाकार कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहते हैं कि जब दुःखरूपी रात्रि में यह सारा संसार भी मुझे धोखा दे तब आपकी मेरी ऊपर कुछ ऐसी कृपा हो कि मैं आप पर संदेह न कर सकूँ। कहने का भाव यह है कि जब मेरा विश्वास इस दुनिया से उठ जाये तो भी मेरा विश्वास तुम्हारे ऊपर टिका रहे।
3. दुःख - ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना नहीं सही
पर इतना होवे करुणामय
दुख को मैं कर सकूँ सदा जय ।
कोई कहीं सहायक न मिले
तो अपना बल-पौरुष न हिले।
प्रश्न: कवि का नाम लिखें।
उत्तर : कवि बंगला के प्रख्यात कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं।
प्रश्न: प्रस्तुत अंश का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर : प्रस्तुत अंश में कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि हे ईश्वर, यदि आप मेरे दुख-ताप से भरे हृदय को ढाढ़स न भी दें तो कोई बात नहीं, लेकिन इतनी करुणा अवश्य करें कि मैं अपने दुःखों पर विजय प्राप्त कर सकूँ। यदि दुःख के दिनों में मुझे कोई सहायता करने वाला न भी मिले तो भी मेरा आत्मबल कम न हो। अपने आत्मबल के सहारे ही मैं अपने दुःख-ताप को पार कर जाऊँगा क्योंकि इस संसार में आत्मबल ही सबसे बड़ा बल है।
दीर्घउत्तरीय प्रश्न —
1. 'आत्मत्राण' कविता का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा, 'आत्मत्राण' कविता में कवि किससे और क्या प्रार्थना कर रहा है?
उत्तर : 'आत्मत्राण' कविता एक प्रार्थना गीत है जिसमें कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ईश्वर से करते हैं कि हे भगवान तुम भले मुझे संकटों से न बचाओ, पर हे करुणा के सागर मुझे इतनी शक्ति अवश्य दो कि मैं संकटों से भयभीत न होऊँ । हे प्रभु! यदि मेरा हृदय दुःख और कष्ट से पीड़ित हो, तो मुझे सांत्वना तुम भले ही न दो, मुझे इतनी शक्ति दो कि मैं दुःखों को सह सकूँ। कवि ईश्वर से पुनः प्रार्थना करता है कि हे प्रभु! यदि विपत्ति में मेरा कोई सहायक न हो, तो कोई बत नहीं, पर आप से यह प्रार्थना अवश्य है कि विपत्ति में मेरा बल और पराक्रम न डिगे। अर्थात् मुझे वह शक्ति दो जिससे मेरा पौरुष मेरा सहायक बने। कवि ईश्वर से इस बात की इच्छा नहीं करता कि वह प्रतिपल संकटों से उसकी रक्षा करें पर ईश्वर से वह विनती करता है कि वह उसे प्रत्येक संकट से उबरने की अविकल शक्ति दें। कवि बार- बार ईश्वर से यह प्रार्थना करता है कि उसे सात्वना, सहायता नहीं चाहिए। कवि यह चाहता है कि ईश्वर उसे संकटों को सहने की शक्ति दें। अन्तिम पंक्ति में कवि भक्ति की याचना करता है। वह कहता है कि हे भगवान आप से यही प्रार्थना है कि यदि मेरे सुख के दिन आयें तो मैं सदा नतमस्तक होकर आपकी छवि निहारता रहूँ। वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे भगवान यदि मेरे ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़े, मुझे सभी लोग पीड़ा पहुँचाएँ, हे भगवान! तब भी मैं आप पर किसी प्रकार का संदेह न करूँ, आपके प्रति मेरे मन में भक्ति भाव हमेशा बना रहे।
संक्षेप में कविगुरु रवीन्द्रनाथ प्रत्येक परिस्थिति में ईश्वर के प्रति अविरल भक्ति की प्रार्थना करते हैं।
संक्षिप्त व्याख्यामूलक प्रश्न —
1. नाश के दुःख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नवगान फिर-फिर !
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर
प्रश्न: प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से अवतरित हैं ?
उत्तर प्रस्तुत पंक्तियाँ 'नीड़ का निर्माण फिर-फिर' से अवतरित हैं।
प्रश्न: प्रस्तुत पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।
उत्तर : कविता के इस अंतिम अंश में कवि बच्चन ने हमें यह संदेश देना चाहा है कि नाश में निर्माण के बीज. छिपे होते हैं, इसलिए हमें प्रकृति की विनाश-लीला से घबराना नहीं चाहिए। नाश के दुःख से कभी भी निर्माण का काम नहीं रूकता जब विनाश-लीला से प्रकृति स्तब्ध रह जाती है कहीं कोई आवाज नहीं सुनाई देती- सब ओर निस्तब्धता छा जाती है तो सृष्टि का संगीत प्रारंभ होता है। इसलिए हमें प्रकृति से सीख लेकर नवनिर्माण में लग जाना चाहिए और प्रेम के आह्वान को दुहराते रहना चाहिए।
2. रात के उत्पात भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण,
किन्तु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर
नीड़ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आह्वान फिर-फिर
प्रश्न : प्रस्तुत अंश किस कविता से उद्धृत है ?
उत्तर : प्रस्तुत अंश 'नीड़ का निर्माण फिर-फिर' कविता से उद्धृत है।
प्रश्न: प्रस्तुत अंश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : कविता के इस अंश में कवि कहते हैं कि रात्रि में होने वाले उत्पात की कल्पना करके ही लोग भय से सिहर उठे, प्रकृति का कण-कण डर गया। तभी पूरब से उषा की मोहिनी मुस्कान से लोगों का भय दूर हो गया, दिल खिल उठे। कवि ने यह अनुभव किया कि जिस प्रकार प्रकृति में हमेशा दिन या रात नहीं होती ठीक वैसे ही हमेशा सुख या दुख नहीं रहता है। इनके आने-जाने का क्रम तो लगा ही रहता है। अगर एक बार नीड़ उजड़ भी गया तो क्या, हमें स्नेह और प्रेम का सहारा लेकर उसका निर्माण फिर से करने में जुट जाना चाहिए।
3. बह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़ पुखड़ कर,
गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय तिनकों से विनिर्मित
घोंसलों पर क्या न बीती,
डगमगाये जबकि कंकड़
ईंट-पत्थर के महल पर
प्रश्न : रचना तथा रचनाकर का नाम लिखें।
उत्तर : रचना 'नीड़ का निर्माण फिर-फिर' तथा रचनाकार हरिवंश राय बच्चन हैं।
प्रश्न: प्रस्तुत अंश का भावार्य लिखें।
उत्तर: प्रस्तुत अंश में कवि कहते हैं कि अचानक बहने वाली बयार के तेज झोंके से भीम की तरह शरीर वारण करने वाले विशालकाय पेड़ भी जड़ से उखड़ कर गिर पड़े। जब बड़े-बड़े वृक्षों का यह हाल हुआ तो न जाने तिनके से बने घोंसलों पर क्या न बीती होगी। ईंट और पत्थर के महल भी डगमगाने लगे जब बयार के साथ कंकड़ों की बौछार उन पर होने लगी। कहने का भाव यह है कि जीवन में ऐसे भी क्षण आते है जब विभिन्न प्रकार के संघातों, चोटों को सहन करना पड़ता है तथा आशारूपी बड़े-बड़े महल भी हिल जाते हैं। लेकिन हमेशा ये स्थिति रहनेवाली नहीं है और अच्छे दिन भी आएंगे, क्योंकि इस संसार में सुख और दुख का आना-जाना तो लगा ही रहता है।
4. एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिये जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उनचास को नीचा दिखाती !
प्रश्न : प्रस्तुत अंश के कवि का नाम लिखें।
उत्तर : प्रस्तुत अंश के कवि श्री हरिवंश राय बच्चन हैं।
प्रश्न: प्रस्तुत अंश में निहित भावों को स्पष्ट करें।
उत्तर : कविता के इस अंश में बच्चन जी ने हमें यह संदेश देना चाहा है कि इस संसार में जीवन जीने में आशा और आत्मबल की बहुत बड़ी भूमिका है। आशा और आत्मबल के सहारे एक छोटी-सी चिड़िया विनाश के बाद भी चोंच में तिनका दबाकर फिर से नीड़ के निर्माण में लग जाती है। उसके साहस और उसकी आशा के सामने शक्तिशाली पवन भी नहीं ठहर पाता। चिड़िया उसे भी नीचा दिखाती है।
5. बोल, आशा के विहंगम
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज बक्ष फिर-फिर ।
प्रश्न : रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर : प्रस्तुत अंश के रचनाकार श्री हरिवंश राय बच्चन हैं।
प्रश्न: पद्यांश का भावार्थ स्पष्ट करें।
उत्तर : कविता के प्रस्तुत अंश में कवि कहते हैं जब जीवन में चारों ओर निराशा के बादल छाए हुए थे तब न जाने यह आशारूपी पक्षी कहाँ छिपा हुआ था। यही वह पक्षी है जो आकाश की ऊंचाइयों पर गर्व से अपना सीना ताने इस विषम परिस्थिति में खड़ा रहता है। यह आशारूपी पक्षी ही है जो हमें यह संदेश देता है कि विषम परिस्थितियों से न घबड़ा कर हमें पुनः जीवन को संवारने में लग जाना चाहिए और इस जीवनरूपी नीड़ का निर्माण केवल और केवल स्नेह के तिनकों से ही किया जा सकता है।
दीर्घउत्तरीय प्रश्न —
1. 'नीड़ का निर्माण फिर-फिर' शीर्षक कविता का सारांश शब्दों में लिखिए।
उतर : 'नीड़ का निर्माण फिर-फिर' शीर्षक कविता हरिवंश राय 'बच्चन' के काव्य संग्रह सतरंगिनी से ली गई है। यह कविता उस समय लिखी गई थी जब बच्चन अपनी पहली पत्नी श्यामा की मृत्यु से उत्पन्न हुए गहरे अवसाद से ग्रस्त थे। पत्नी श्यामा की मृत्यु से वे पूरी तरह टूट चुके थे। हालांकि यह कविता उनकी जीवनी के दूसरे भाग 'नीड़ का निर्माणफिर-फिर शीर्षक के अधीन है। जहाँ तक कविता की बात है तो उसका सार अंश यही है कि नीड़ का निर्माण फिर-फिर अर्थात् कठिनाइयों के झंझावात से लड़ते हुए आगे की ओर बढ़ना। फिर भी यह कविता अपने सारांश पर एक विस्तृत चर्चा की मांग करती है।
पहले स्तवक की पहली पंक्ति का आरम्भ ही कवि आह्वान के साथ करता है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि मनुष्य को भविष्य के प्रति आशावान बने रहने का संदेश देता है। कहा जाता है कि प्रकृति मनुष्य को सहचरी है और प्रकृति की तरह ही व्यवहार भी करती है। इस स्तवक में कवि प्रकृति और मनुष्य के बीच रागात्मक सम्बन्ध को बड़ी बारीकी से उकेरता है और प्रकृति में आये प्रलय से मनुष्य जीवन में आने वाले प्रलय से सम्बन्ध स्थापित करता है। प्रकृति में आए प्रलय ने पूरी प्रकृति को इस तरह अपने चपेट में ले लिया है कि हर तरफ अंधेरा व्याप्त हो गया, ठौक ऐसी ही स्थिति मनुष्य जीवन में कब आ जाती है, वह जान नहीं पाता और हर तरफ उसे अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है। उसके विचार उसका साथ छोड़ देते है। आशय यह कि प्रथम स्तवक में कवि ने प्रकृति के माध्यम से अपने जीवन में पिर आए अंधेरे को उद्धृत पंक्तियों में चित्रित किया है।
दूसरे स्ववक में कविता में आयो उन स्थितियों का चित्रण है जिन्होंने एक ऐसे माहौल को जन्म दिया है जिसने पूरी पृथ्वी को अपने चपेट में ले लिया है, अर्थात् दिन को रात में तब्दील कर दिया है। लेकिन यह अंधेरा प्रकृति में व्याप्त अंधेरा नहीं बल्कि यह वह अंधेरा है जिसने कवि के अतः को भी अपनी चपेट में ले लिया है। इस अंधेरे से जूझता कवि यहाँ तक मान बैठता है कि वह अब इस अंधेरे से बाहर नहीं निकल पायेगा।
तीसरे स्तवक में कवि प्रकृति में फैले अधकार के साम्राज्य की बीभत्सता का चित्रण करते हुए कहता है कि इस अंधेरे से प्रकृति का कण-कण भयभीत है। परन्तु अंधकार के इस साम्राज्य में कवि को आस्था के भी दर्शन होते हैं और वह इस अंधेरे से लड़ता हुआ एक नयी उषा के आगमन का संकेत देता है।
चौथे स्तवक में कवि एक दृश्य अंकिता जान पड़ता है। एक ऐसा चित्र मानों कोई चित्रकार अपने जीवन में घट रही घटना को कैनवास पर रंगों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। आँधियों में इतनी तेज हवाएं चली कि बड़े से बड़े पहाड़ हिल गए, विशालकाय पेड़ जड़ के साथ उखड़कर गिर गए. कंकड़ ईंट-पत्थर से बने घर तक डगमगा गए। इस परिस्थिति को देखता हुआ कवि उन घोंसलों को लेकर चिन्तित नजर आता है। आशय यह कि विपरीत परिस्थितियाँ बड़े से बड़े मनुष्य को हिलाकर रख देती है तो सामान्य जन की क्या बिसात सामान्य जन तो पेड़ पर बने चिड़ियों के उस घोंसले की तरह हैं जो आँधियों में पेड़ों के साथ गिरकर बिखर जाते हैं। ठीक ऐसी ही परिस्थिति से कवि भी जूझ रहा है। उसके जीवन में आयी आंधी ने न केवल उसका सुख-चैन छीन लिया है बल्कि उसकी अडिग रहने वाली आस्था को डगमगा दिया है।
पंचम स्तवक में इस विपरीत स्थिति में कवि के मन में नाश के बाद होने वाले निर्माण को परिकल्पना के दर्शन होते हैं। अपने मन में आशा रूपी विहग के माध्यम से वह उस विपरीत स्थिति से बाहर निकलने के लिए प्रयासरत दिखता है। शेखर माध्यमिक हिन्दी गाईड छठे स्तबक में कवि उम्मीद की किरण की व्याख्या करता है। जिस प्रकार घिरे हुए बादलों में चमकती बिजली उसको भयानकता को दर्शाती है परन्तु वह चमकती बिजली अपने है प्रकाश से कुछ देर के लिए उस अंधेरे को मिटा देती है। इस स्थिति में कवि को उम्मीद को एक नई किरण नजर आती है और उम्मीद को यह किरण तब और मजबूत हो जाती है। जब उस गर्जनमय गगन के बीच से होकर पक्षियों का समूह गीत गाता हुआ आगे बढ़ता जाता है। आशय यह है कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी विपरीत क्योंकि न हों, स्थायी नहीं होती। एक न एक दिन उनका समापन अवश्यम्भावी है। बस मनुष्य को उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए, उन परिस्थितियों का डटकर सामना करना चाहिए।
सातवें स्तवक में कवि चिड़िया के चोंच में तिनके के माध्यम से निर्माण के सुख के अनुभव को साझा करता है। वह चिड़िया उस उम्मीद, उस जुझारू जोव का प्रतीक है जो अपना सबकुछ खोकर भी पुनः उन बीजों को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत है। और उसके इसी प्रयास के कारण वह पवन उनवास (ऋग्वेद में वर्णित पवन के उनचास देवता), के हकों के विपरीत आसानी से उड़ रही है और निर्माण के लिए सचेष्ट एवं तत्पर है।
अन्तिम एवं आठवें स्तवक में कवि यह संदेश देता है। कि नाश के दुःख से दुःखी होकर मनुष्य को अपना प्रयास नहीं रोकना चाहिए क्योंकि जो भी होती है वही निर्मित भी होती है। नाश का दुःख कभी सृजन के सुख दबा नहीं सकता। वह (नाश) भले ही बहुत बड़ा हो पर स्थायी नहीं हो सकता, उसका अन्त निश्चित है। निर्माण की प्रक्रिया का दोबारा शुरू होना निश्चित है।
संक्षिप्त व्याख्यामूलक प्रश्न —
1. ये नर-भुजंग मानवता का, पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के वध के लिए नीच, साहाय्य सर्प का लेते हैं।
प्रश्न: रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर : रचनाकार रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।
प्रश्न: पद्यांश की व्याख्या करें।
उत्तर : कर्ण अश्वसेन से कहता है कि ये मनुष्य रूपी सर्प मानवता के रास्ते में बाधा पैदा करते हैं। वे अपने शत्रु से बदला लेने के लिए किसी भी नीचता पर उतर सकते हैं। यहाँ तक कि साँपों की भी सहायता ले सकते हैं।
2. राधेय जरा हँसकर बोला, 'रे कुटिल! बात क्या कहता है?
जय का समस्त साधन नर का, अपनी बाँहों में रहता है।
प्रश्न: वक्ता कौन हैं ?
उत्तर : वक्ता कर्ण है।
प्रश्न : वक्ता का आशय स्पष्ट करें। अथवा, पंक्ति का भावार्थ लिखें।
उत्तर : अश्वसेन की कर्ण के द्वारा बाण के माध्यम से अपने शत्रु तक पहुँचाने की बात यह उसकी कुटिलता है। भला ऐसी बात कहने योग्य है? मनुष्य की विजय का साधन तो उसके अपने बाहुबल पर है। कर्ण को अपने बाहुबल पर भरोसा है। ऐसे में भला यह अश्वेसन की मदद क्यों ले?
3. इतने में शर को लिए कर्ण ने, देखा ज्यों अपना निषंग,
तरकस में से फुंकार उठा, कोई प्रचंड विषधर भुजंग।
प्रश्न: कवि का नाम लिखें।
उत्तर : कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्य लिखें।
उत्तर : प्रस्तुत पद्यांश में दिनकर महाभारत-युद्ध का वर्णन करते हुए कहते हैं कि दोनों ही पक्ष एक-दूसरे पर बाणों की वर्षा कर रहे थे। कर्ण ने बाण के लिए अपना तरकस ज्योहि देखा उसके तरकस में एक मयंकर विषधर साँप फुंफकार रहा था। यह देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया।
4. तेरी सहायता से जय तो, मैं अनायास पा जाऊँगा,
आनेवाली मानवता को, लेकिन क्या मुख दिखलाऊँगा ?
प्रश्न: पाठ का नाम लिखें।
उत्तर : पाठ का नाम 'मनुष्य और सर्प' है।
प्रश्न: वक्ता तथा श्रोता का नाम लिखें।
उत्तर: वक्ता कर्ण है तथा श्रोता अश्वसेन है।
प्रश्न: पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : कर्ण अरवसेन को नम्रतापूर्वक मना करते हुए कहता है कि यह सही है कि तुम्हारी सहायता से युद्ध में अनायास ही मुझे सफलता मिल जाएगी। लेकिन यह भी सोचो कि आने वाली मानवता को भला मैं क्या मुंह दिखलाऊंगा? मेरे इस कार्य के लिए आने वाली संतति भी मुझे धिक्कारेगी।
5. रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित बन में ही नहीं, बहुत बसते पुर, ग्राम-घरों में भी।
प्रश्न : पाठ का नाम लिखें।
उत्तर : पाठ 'मनुष्य और सर्प' है।
प्रश्न: अश्वसेन कौन था ?
उत्तर : अश्वसेन सर्प था। पांडवों के द्वारा खांडव वन में आग लगा दी जाने पर उसकी माँ जल गई थी। उसी की मौत का बदला वह पाण्डवों से लेना चाहता था।
प्रश्न: पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : कर्ण अश्वसेन से कहता है कि तुम्हारे कई वंशज मनुष्य के रूप में भी हैं। वे ऊपर से भले ही मनुष्य दिखते हैं लेकिन ये साँप की तरह जहरीले हैं। साँप केवल जंगलों में नहीं रहते, वे नगर, गाँव और घरों में भी बसते हैं।
6. जा भाग, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह कलंक, अपने पर नहीं लगा सकता।
प्रश्न : रचना तथा रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर : रचना 'मनुष्य और सर्प' है तथा रचनाकार रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।
प्रश्न : वक्ता कौन है ? यह किसे भाग जाने को कहता है और क्यों ?
उत्तर: वक्ता कर्ण है। वह अश्वसेन को चिक्कारते हुए कहता है कि तुम तो मानव तथा मानवता के शत्रु हो । तुम्हारे साथ मेरी ता कभी नहीं हो सकती। मैं तुम्हारी सहायता लेकर अपने माथे पर कलंक का टीका नहीं लगा सकता चाहे जो भी हो।
दीर्घउत्तरीय प्रश्न —
1. 'मनुष्य और सर्प' पाठ के आधार पर कवि की भावनाओं को स्पष्ट करें।
अथवा, 'मनुष्य और सर्प' कबिता के संदेश एवं उद्देश्य को लिखें।
अथवा, 'मनुष्य और सर्प' कविता के आधार पर कर्ण और अश्वसेन का संवाद अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर : महाभारत युद्ध में कर्ण का चरित्र सामरिक (युद्ध) महत्व से अधिक सामाजिक शक्ति, निष्ठा तथा मानवताबाद की ओर संकेत करता है। कर्ण महाभारत-युद्ध में दुर्योधन की ओर से लड़ा लेकिन उसने युद्ध में कभी भी अनीति का सहारा नहीं लिया। अगर वह चाहता तो अर्जुन का नाश करने के लिए अश्वसेन सर्प का उपयोग कर लेता। कर्ण मानव जाति का प्रतीक था इसलिए साँपों से मिलकर लड़ने को वह नीचता समझता था। कर्ण के इसी मानवतावादी चरित्र को दिनकर ने 'मनुष्य और सर्प' कविता में उभारा है।
कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध लड़ा जा रहा है। चारों ओर जन-धन की अपार हानि देखकर ऐसा लगता है मानो धरती का सुहाग जल रहा हो। यह मनुष्य के अंदर की वह कुटिलता रूपी आग ही है जो कुरुक्षेत्र में खुलकर अपना खेल खेल रही है। इस आग की लपट से कोई नहीं बच पाया। की भयंकरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि घोड़े तथा हाथियों के माँस के महाभारत युद्ध लोथड़े पर सैनिकों के अंग कट-कट कर गिर रहे हैं। युद्ध में भाग लेनेवाले घोड़े हाथियों के खून में तथा सैनिकों के खून में कोई अंतर नहीं रह गया है। दोनों के रक्त मिलकर एक हो गए हैं।
तेज गति से, पर्वत के समान सुघड़ लेकिन रक्त-रंजित शरीर लेकर युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के साथ कर्ण युद्ध कर रहे हैं। क्षण-क्षण भर बाद उनके गरजने का गंभीर स्वर सुनाई पड़ता है।
कर्ण और अर्जुन दोनों ही युद्ध की कला में पारंगत हैं। दोनों के बल समान हैं। दोनों ही हर प्रकार से समर्थ हैं। दोनों के ही निशाने अचूक हैं लेकिन बाण की वर्षा व्यर्थ ही सिद्ध हो रही है। कर्ण ने बाण के लिए अपना तरकस ज्योहि देखा उसके तरकस में एक भयंकर विषधर साँप फुंफकार रहा था। यह देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया। में छिपे सर्प ने अपना परिचय देते हुए कर्ण से कहा कि वह सर्पों का राजा है। वह जन्म से ही अर्जुन का परम शत्रु है लेकिन कर्ण का हर प्रकार से हित चाहने वाला है।
पांडवों द्वारा खाण्डव वन में आग लगा दी जाने पर अश्वसेन की सर्पमाता उसमें जल मरी थी। अश्वसेन उसी का बदला लेना चाहता था। इसलिए वह कर्ण से कहता है कि वह एक बार कृपा करे। उसे अपने बाण पर चढ़ा अपने लक्ष्य तक पहुँचने दे। जब वह अपने शत्रु तक पहुँच जाएगा तो अपने विष से उसे मृत्युरूपी रथ पर सवार कर देगा।
वह अपने जीवन भर का संचित विष उसके शरीर में उतार देगा। इस प्रकार उसका प्रतिशोध पूर हो जाएगा। अश्वसेन कर्ण के द्वारा बाण के माध्यम से अपने शत्रु तक पहुँचाने की बात पर कर्ण कहता है कि यह उसकी
कुटिलता है। भला ऐसी बात कहने योग्य है? मनुष्य की विजय का साधन तो उसके अपने बाहुबल पर है। कर्ण अश्वसेन का अनुरोध सुनकर कहता है कि यह संभव नहीं है कि वह मनुष्य होकर मनुष्य से युद्ध करने लिए किसी सर्प का सहारा ले। उसने जीवन भर मानव-धर्म के प्रति निष्ठा पाल रखे है। ऐसा करना उसके आचर के विरुद्ध होगा ।
कर्ण अश्वसेन को नग्नतापूर्वक मना करते हुए कहता है कि यह सही है कि तुम्हारी सहायता से युद्ध में अनायास ही मुझे सफलता मिल जाएगी, लेकिन यह भी सोचो कि आने वाली मानवता को भला मैं क्या मुँह दिखलाऊंगा ?
युद्ध में तुम्हारी सहायता से विजय प्राप्त करने पर सारी दुनिया यही कहेगी कि कर्ण ने अपने सारे कुकर्मों पर राख डाल दिया। उस पापी ने अपने शत्रु से बदला लेने के लिए एक सर्प की सहायता ली।
तुम्हारे कई वंशज भी मनुष्य के रूप में हैं। वे ऊपर से भले ही मनुष्य दिखते हैं लेकिन वे साँप की तरह जहरीले हैं। साँप केवल जंगलों में ही नहीं रहते, वे नगर, गाँव और घरों में भी बसते हैं। ये मनुष्यरूपी सर्प मानवता के रास्ते में बाधा पैदा करते हैं। वे अपने शत्रु से बदला लेने के लिए किसी भी नीचता पर उतर सकते हैं। कर्ण कहता है कि मैं ऐसा नहीं चाहता कि मेरा नाम भी मनुष्यरूपी साँपों में गिना जाय ।
अर्जुन से मेरी शत्रुता है लेकिन वह मनुष्य है, सर्प नहीं। और यह संघर्ष, यह शत्रुता भी जन्म-जन्मांतर तक नहीं, केवल इसी जन्म भर चलने वाली है। फिर मैं यह पाप कैसे कर सकता हूँ ?
जब अर्जुन के साथ मेरी यह शत्रुता केवल इसी जन्म में चलनी है तो द्वेष में आकर मैं अपना अगला जीवन भी क्यों बिगाड़ लूँ। साँपों की शरण में जाकर, साँप बनकर मैं किसी मनुष्य को क्यों मारूँ? कर्ण ने अश्वेसन से कहा कि तुम तो मानव तथा मानवता के शत्रु हो। तुम्हारे साथ मेरी मित्रता कभी नहीं हो सकती। मैं तुम्हारी सहायता लेकर अपने माथे पर कलंक का टीका नहीं लगा सकता चाहे जो भी हो। इस प्रकार हम पाते हैं कि कर्ण जाति-समाज से उपेक्षित होकर, समस्याओं से घिरे होने पर भी मानवता को नहीं छोड़ता। पुरुषार्थ, संयम तथा कर्तव्यनिष्ठा से अपना स्थान अर्जित करने के लिए वह जिस प्रकार आगे बढ़ता जाता है, वह किसी भी समाज के लिए अनुकरणीय है।
संक्षिप व्याख्यामूलक प्रश्न —
1. भीड़ ठेल कर लौट गया वह
मरा पड़ा है रामदास यह
देखो-देखो बार बार कह
लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।
प्रश्न: कवि और कविता का नाम लिखें।
उत्तर : कवि रघुवीर सहाय हैं तथा कविता का नाम ‘रामदास’ है।
प्रश्न: भीड़ ठेल कर कौन लौट गया ?
उत्तर : रामदास का हत्यारा भीड़ ठेल कर लौट गया।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट करें।
उत्तर : रामदास को चाकू मारने वाला हत्यारा भीड़ की परवाह किए बिना वहाँ से चला गया। किसी ने उसे रोकने की हिम्मत नहीं दिखाई। अथ रामदास सड़क पर मरा पड़ा है। लोग उसकी परवाह करने के बजाय वहाँ खड़े थे। वे उन लोगों को बुलाने लगे जिन्हें यह संशय था कि रामदास की हत्या होकर रहेगी।
2. चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।
प्रश्न: कविता तथा कवि का नाम लिखें।
उत्तर : कविता का नाम 'रामदास' है तथा इसके कवि रघुवीर सहाय हैं।
प्रश्न: रामदास कौन है ?
उत्तर : रामदास एक आम आदमी है जो अत्याचार तथा अनाचार का विरोध अकेले ही करता है।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : इस पद्यांश में रामदास नामक व्यक्ति के बारे में कहा गया है। रामदास एक आम आदमी है।अत्याचार तथा अनाचार का विरोध करने के कारण राजनीतिक गुंडे उसे ये धमकी दे चुके हैं कि उसे मौत के घाट उतार दिया जाएगा। अपनी हत्या की आशंका से भयभीत वह बाहर निकला। दिन का समय था तथा घने बादल छाए हुए थे। वह मन ही मन भयभीत था कि हो न हो हत्यारे उसकी ताक में होंगे। उसे लगा कि उसका समय आ गया है क्योंकि उसे पहले से ही धमकी मिल चुकी थी कि सड़क पर नज़र आते ही उसकी हत्या कर दी जाएगी।
3. धीरे धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे सभी निहत्ये
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी।
प्रश्न: यह अंश किस कविता से लिया गया है ?
उत्तर: यह अंश 'रामदास' नामक कविता से लिया गया है।
प्रश्न: प्रस्तुत पंक्तियों का भाव स्पष्ट करें।
उत्तर : रामदास अपनी हत्या की आशंका से डरा हुआ सड़क पर धीरे-धीरे चल रहा था। एक बार उसने सोचा कि सुरक्षा के लिए किसी को साथ से थे। फिर वह सोचकर रह गया क्योंकि निहत्था आदमी ऐसी परिस्थिति में मला उसकी सुरक्षा क्यों कर पाएगा? रामदान को सड़क पर देखने वाले लोग भी मौन थे। उन्हें यह पता था कि हो न हो आज रामदास की हत्या कर दी जाएगी।
दीर्घउत्तरीय प्रश्न —-
1. 'रामदास' किसका प्रतीक है? उसकी हत्या की आशंका क्यों थी ?
अथवा, 'रामदास' कविता के माध्यम से कवि ने किस सच्चाई की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करना चाहा है ?
'अथवा, 'रामदास' कविता का मूल भाव लिखें।
उत्तर : रघुवीर सहाय 'रामदास' कविता के कवि हैं। इनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह जीवन के हर कोने से अपने विषय की तलाश कर लेती है। सत्ता और राजनीति से भी उनकी कविता परहेज नहीं करती है। सत्ता तथा राजनीति में एक ईमानदार व्यक्ति किस प्रकार इसका शिकार होता है - इससे भी रघुवीर सहाय आम जनता को सावधान करते हैं। प्रस्तुत कविता 'रामदास' में एक ऐसे ही व्यक्ति का वर्णन है जो गंदी राजनीति का शिकार होता है। उसे अपनी ईमानदारी तथा अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। रामदास एक आम आदमी है। अत्याचार तथा अनाचार का विरोध करने के कारण राजनीतिक गुंडे उसे ये धमकी दे चुके हैं कि उसे मौत के घाट उतार दिया जाएगा। अपनी हत्या की आशंका से भयभीत वह बाहर निकला। दिन का समय था तथा घने बादल छाए हुए थे। वह मन ही मन भयभीत था कि हो न हो हत्यारे उसकी ताक में होंगे। उसे लगा कि उसका अंत समय आ गया है क्योंकि उसे पहले से ही धमकी मिल चुकी थी कि सड़क पर नज़र आते ही उसकी हत्या कर दी जाएगी।
रामदास अपनी हत्या की आशंका से डरा हुआ सड़क पर धीरे-धीरे चल रहा था। एक बार उसने सोचा कि सुरक्षा के लिए किसी को साथ ले ले। फिर वह सोचकर रह गया क्योंकि निहत्या आदमी ऐसी परिस्थिति में भला उसकी सुरक्षा क्या कर पाएगा। उसने दोनों हाथ पेट पर सुरक्षा की दृष्टि से रखे हुए था तथा एक-एक कदम सावधानीपूर्वक रखता वह आगे बढ़ रहा था। लोग मौन होकर रामदास पर आँखें गड़ाए हुए थे क्योंकि यह तय था कि जिसने उसे हत्या की धमकी दी है वह आज उसकी हत्या करके रहेगा। रामदास सड़क पर आशंकित भाव से खड़ा था कि किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा। रामदास पर उसने अपने सधे सघाये हाथों से चाकू का वार किया। चाकू का वार होते ही रामदास के शरीर से खून का फच्चारा- सा निकल पड़ा।
रामदास को चाकू मारने वाला हत्यारा भीड़ की परवाह किए बिना वहाँ से चला गया। किसी ने उसे रोकने की हिम्मत नहीं दिखाई। अब रामदास सड़क पर मरा पड़ा है। लोग उसकी परवाह करने के बजाय यहाँ खड़े थे। के उन लोगों को बुलाने लगे जिन्हें यह संशय था कि रामदास की हत्या होकर रहेगी। इस प्रकार हम पाते हैं कि आज के गुंडातंत्र में आम आदमी को गलत का विरोध करना कितना महंगा पड़ता हैं। भीड़ भी देखती रह जाती है और हत्यारा चहल-कदमी करते निकल जाता है। यह घटना व्यापक अर्थ को अपने आप में उकेरती है। रघुवीर सहाय की कविता में वास्तविकता का दबाव अधिक है। वे यह संदेश देना चाहते हैं कि जब कहने को बहुत कुछ हो तो मौन को स्वीकार करना प्रतिरोध का प्रतीक है। व्यक्ति के अकेले प्रतिरोध से समाज नहीं बदलता है। समाज की संगठित शक्ति से ही राजनैतिक स्थिति को बदला जा सकता है -यही बताना इस कविता का उद्देश्य है।
संक्षिप्त व्याख्यामूलक प्रश्न —
1. " मरद निखट्टू जनखा जोइला, लाल न होता ऐसा कोयला ।"
प्रश्न : प्रस्तुत अंश किस पाठ से लिया गया है ?
उत्तर: प्रस्तुत अंश 'नौरंगिया' नामक पाठ से लिया गया है
प्रश्न: प्रस्तुत अंश का प्रसंग स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर : नौरंगिया दिखने में सुंदर है, परिश्रमी है, लेकिन पति उसके लायक नहीं है। उसका पति काम-धाम न करने वाला और स्त्रैण है, फिर भी वह उसकी उपेक्षा नहीं करती है। विवाह के बंधन में बंध जाने के बाद पति ही उसके लिए सब कुछ है चाहे वह जैसा भी है। बिना किसी हीन भाव के वह अपने पति के साथ मजे में जिंदगी गुजार रही है।
2. "ढहती भीत पुरानी छाजन, पकी फसल तो खड़े महाजन,
गिरवी गहना छुड़ा न पाती, मन मसोस फिर-फिर रह जाती।"
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश के रचनाकार कैलाश गौतम हैं।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश की व्याख्या करें।
उत्तर : नौरंगिया गाँव में जिस घर में रहती है, उसकी दीवारें ढह रही हैं। छाजन भी पुरानी पड़ चुकी है। छाजन पुरानी पड़ जाने से वह वर्षा से उसकी रक्षा नहीं कर सकती। अपनी स्थिति को सुधारने की एकमात्र आशा पकी फसल से लगी होती है, लेकिन फसल के पकते ही महाजन अपने रुपये वसूलने आ धमकता है। उसकी फसल का अधिकांश तो महाजन के पेट में ही चला जाता है। जो गहने उसने गिरवी रखे थे उन्हें भी छुड़ा नहीं पा रही है। अपनी इस विवशता पर वह मन मसोस कर रह जाती है।
3. बिच्छू, गोंजर, साँप भारती, सुनती रहती विविध-भारती है
बिलकुल है लाठी-सी सीधी, भोला चेहरा बोली मीठी।
प्रश्न : रचना और रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर : रचना 'नौरंगिया' तथा रचनाकार कैलाश गौतम हैं।
प्रश्नः प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : नौरंगिया गाँव में एक ऐसे मकान में रहती है जिसकी दीवारें उहती जा रही हैं, छाजन भी पुरानी पड़ चुकी है। ऐसे मकान में जब-तब उसका सामना बिच्छू, गोंजर तथा साँप से हो जाता है। लेकिन वह इनसे डरती नहीं तथा उन्हें मारकर अपनी रक्षा करती है। विविधि-भारती से प्रसारित होने वाले संगीत को सुनकर ही वह अपना मनोरंजन करती है। नौरंगिया बिल्कुल सीधी सादी, चेहरा भोला और उसकी बोली में मानो शहद घुलता हो।
4 : देवी-देवता नहीं मानती, छक्का पंजा नहीं जानती
ताकतवर से लोहा लेती, अपने बूते करती खेती,
प्रश्न: प्रस्तुत अंश किस कविता से लिया गया है ?
उत्तर: प्रस्तुत अंश 'नौरंगिया' कविता से लिया गया है
प्रश्न : कवि का नाम लिखें।
उत्तर : कवि कैलाश गौतम हैं।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : कविता की इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि नौरंगिया धर्म के नाम पर किसी बाहरी दिखावे में विश्वास नहीं करती है, न ही वह छल-कपट जानती है। वह सही रास्ते पर चलने वाली है इसलिए गाँव के प्रभावशाली व्यक्ति के सामने भी नहीं झुकती है। वह खेती के काम के लिए भी किसी पर निर्भर नहीं है - सारा कार्य वह अपने बलबूते पर ही करती है। कठोर परिश्रम ही उनका धर्म है, ईमान है।
5. "अद्भुत है ईश्वर की रचना, सबसे बड़ी चुनौती बचना
जैसी नियत लेखपाल की वैसी ठेकेदार की है"
प्रश्न: यहां अद्भुत ईश्वर की रचना किसे कहा गया है ?
उत्तर : नौरंगिया को ईश्वर की अद्भुत रचना कहा गया है।
प्रश्न : आलोच्य पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : नौरंगिया की सुंदरता आमायुक्त है, यह तरो-ताजा मालूम पड़ती है मानो सौ-सौ बार पानी से पुलकर उसका रंग और भी निखर आया हो। उसके होंठ कुछ इस मुद्रा में खुले हैं कि मानो वह कुछ कहना चाहती हो। नौरंगिया को देखकर सब यही कहते हैं कि वह ईश्वर की अद्भुत रचना है, लेकिन नौरंगिया का रूप-सौंदर्य ही उसका शत्रु बन गया है, गाँव के प्रमादशाली व्यक्तियों से अपनी इज्जत को बचाना ही उसकी सबसे बढ़ी चुनौती बन गई है।
6. गाँव-गली की चर्चा में वह सुर्खी-सी अख़बार की है।
नौरंगिया गंगा पार की है।
प्रश्न: कविता तथा कवि का नाम लिखें।
उत्तर : कविता 'नौरंगिया' है तथा इसके कवि कैलाश गौतम हैं।
प्रश्न : 'सुर्खी-सी अखबार की' का अर्थ क्या है ?
उत्तर : जो समाचार प्रमुख होता है उसे बड़े-बड़े अक्षरों में पहले पृष्ठ पर सुख कहते हैं। नौरंगिया की चर्चा भी गाँव में इसी प्रकार की है।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भाव स्पष्ट करें।
उत्तर : नौरंगिया अपनी सुंदरता तथा कर्मठता के कारण गाँव की गली-गली में चर्चा का विषय बनी हुई है। गाँव में उसकी चर्चा वैसे ही होती है जैसे सुख वाले समाचार की होती है। आखिर ऐसा क्यों न हो, वह गंगा पार की जो है। गंगा पार की युवतियाँ सुघड़, सुंदर और कामकाजी होती हैं।
7. जब देखो तब जाँगर पीटे, हार न माने काम घसीटे
जब तक जागे, तब तक भागे, काम के पीछे, काम के आगे।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश कहाँ से उद्धृत है ?
उत्तर : प्रस्तुत पद्यांश 'नौरंगिया' कविता से उद्धृत है।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश की व्याख्या करें।
उत्तर : नौरंगिया के लिए कर्म ही जीवन है। जब देखो तब वह किसी न किसी काम में लगी हुई नज़र आती है।
वह पकी हुई फसल के डंठलों को पीट-पीटकर उनसे अनाज के दाने छुड़ाती है। वह किसी भी काम से हार नहीं मानती। जब देखो तब वह किसी न किसी काम के आगे-पीछे भागती ही रहती है। दिन भर काम में लगे रहने के कारण ही उसके जीवन में पाप का प्रवेश नहीं हो पाया है। विनोबा भावे ने भी कहा था कि शारीरिक श्रम करने वाले के जीवन में पाप का प्रवेश नहीं हो सकता।
8. कब तक आखिर कितना जूझे, कौन बताए किससे पूछे
जाने क्या-क्या टूटा-फूटा, लेकिन हँसना कभी न छूटा।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश किस रचना से लिया गया है ?
उत्तर : प्रस्तुत पद्यांश 'नौरंगिया' कविता से लिया गया है।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : नौरंगिया जीवन में कठिन पश्चिम करती है ताकि उसका जीवन स्तर सुधर सके, लेकिन सामाजिक- आर्थिक शोषण करने वालों से वह कबतक लड़ती रहेगी ? ये समस्यायें कैसे दूर होंगी - यह वह किससे पूछें और कौन ऐसा व्यक्ति है जो उसे सही राह दिखला सकता है। उसके जीवन में बहुत कुछ टूटा, बहुत कुछ खोया फिर भी उसने हार नहीं मानी। वह हँस-हँसकर इन सबसे लड़ती जा रही है क्योंकि उसका अटल विश्वास उसने है कि एक न एक दिन उसका भी समय बदलेगा।
दीर्घउत्तरीय प्रश्न —
1. 'नौरंगिया' कविता का मूल साथ लिखें।
अथवा, 'नौरंगिया' कविता में निहित कवि के संदेश को लिखें।
अथवा, 'नौरंगिया' कविता की नौरंगिया की चारित्रिक विशेषताओं को लिखें।
अथवा, 'नौरंगिया' त्रमिक युवती की गाथा है- स्पष्ट करें।
उत्तर : कैलाश गौतम की कविताओं में ग्रामीण जीवन का चित्रण है। कहीं खेत जोतकर घर लौटने वाले किसान परिवार का दृश्य है, कहीं खिन्नता है, कहीं निराशा है तो कहीं पुरुष से भी अधिक आशावान कर्मठता का पाठ पढ़ाने वाली युवती है। 'नौरंगिया' कैलाश गौतम की एक ऐसी ही कविता है। इसमें कवि ने एक ग्रामीण युवती का चित्रण किया है। नाम के अनुरूप ही उसके व्यक्तित्व में प्रकृति के नौ रंग बिखरे दिखाई देते हैं। कवि ने जिस युवती का वर्णन किया है उसका नाम नौरंगिया है। वह देवी-देवता अर्थात् किसी धर्म के नाम पर किसी दिखावे में विश्वास नहीं करती। वह भोली है तथा उसकी प्रकृति में छल-कपट भी नहीं है। गाँव के प्रभावशाली व्यक्तियों से वह अन्याय के विरुद्ध लोहा लेती है। स्त्री होते हुए भी यह अपने बल- -बूते पर खेती का काम देखती है। उसका पति एकदम निकम्मा, स्त्री की प्रकृति का है। यह उस पत्थर कोयले के समान हैं जो जयता नहीं है। अपने अनुरूप पति को न पाकर वह उससे घृणा नहीं करती बल्कि उसके साथ शान से जीती, खाती-पीती है। उसके इस व्यवहार की चर्चा पूरे गाँव में उसी प्रकार है जिस प्रकार अखबार के मुख्य समाचार की ।
नौरंगिया जवान है, उसका बदन कसा है, ऐसा लगता है मानो शीशे के साँचे में पानी भरा हो। उसके शरीर में सौंदर्य की लहर उसी प्रकार उठती दिखाई देती है जिस प्रकार आम के छोटे-छोटे कोमल लालिमायुक्त पत्ते हवा में काँपते हैं। उसका चेहरा फूल की तरह सुंदर है तथा उसके काले काले लट भँवरे के समान मुख पर मंडराते हैं। वह ऐसी तरो-ताजा तथा आमायुक्त दिखाई देती है मानो सौ-सौ बार पानी में घुलकर आयी हो। उसके होंठ कुछ कहने की भंगिमा में खुले हैं। सचमुच नौरंगिया ईश्वर की अद्भुत रचना है। नौरंगिया के रूप-सौंदर्य के कारण गाँव के मुंशी तथा ठेकेदार की कामुक दृष्टि उस पर लगी रहती है। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि ऐसे नरभक्षियों से कैसे बचा जाए। लेकिन कोई हाथ लगाने की हिम्मत नहीं करता क्योंकि वह गंगा पार की है।
कवि कहते हैं कि जब भी देखो नौरंगिया अपने काम में लगी रहती है। वह कटी फसल के सूखे पौधे को पीट- पीट कर उससे दाने निकालती है। किसी भी काम से वह हार नहीं मानती। जब तक उसकी आँखें खुली रहती हैं तब तक उसकी भाग- T-दौड़ काम के पीछे बनी ही रहती है। स्त्री होते हुए भी वह बिच्छू, गोंजर या साँप से नहीं उरती, दिखाई पड़ते ही उसे मार डालती है। उसके मनोरंजन का एक ही साधन है - विविध भारती से प्रसारित गाने को सुनना। वह सीधी-सादी है, उसकी बोली मीठी है तथा उसकी आँखों में सुनहले भविष्य के सपने तैर रहे हैं। वह उन दिनों की आस लगाए बैठी है जब अपने परिश्रम से वह हर दिन त्योहार के समान बिताएगी।
नौरंगिया की कर्मठता के बावजूद उसके जीवन में आर्थिक तंगी है। उसके घर की दीवारें वह रही है, पर की छाजन भी पुरानी पड़ गई है। फसल जैसे ही पकती है पैसे ही महाजन कर्ज वसूलने के लिए सिर पर आ खड़े होते है। जो गहने उसने गिरवी रखे थे, उन्हें भी नहीं घुड़ा पाती है मन मसोस कर रह जाती है। आखिर वह आर्थिक तंगी से कब तक जूझे। अपनी आर्थिक तंगी से वह कैसे छूटे और इसका उपाय आखिर किससे पूछे। उसने जिंदगी में क्या-क्या नहीं खोया, क्या नहीं टूटा फिर भी उसकी हँसी नहीं छूटी। ज़िंदगी जीने की ललक कम नहीं हुई। उसने अपने पैरों में जो चप्पल पहनी है वे भी किसी से माँगी हुई हैं तथा ताड़ी भी उधार में ली थी। इन सबके बावजूद नौरंगिया के हौसले में कोई कमी नहीं जाती क्योंकि वह गंगा पार की है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि कैलाश गौतम ने इस कविता में नौरंगिया को दीन-हीन- लाचार नहीं बल्कि पुरुषों और परिस्थितियों से टक्कर लेनेवाली कर्मठ स्त्री के रूप में दर्शाया है। नौरंगिया जैसी युवती से ही इस देश की नारियों को एक नई दिशा मिल सकती है। हम कह सकते हैं कि नौरंगिया आनेवाली नारियों का प्रतीक है। कही नारी को अब सशक्त रूप में देखना चाहते हैं और यही एक इस कविता का उद्देश्य है तथा नारियों को अवन्त नहीं, सबला बनने का संदेश इसमें निहित है।
संक्षिप्त व्याख्यामूलक प्रश्न —
1. "वर्षों पहले यों ही झटके से सीट छोड़कर खड़े हो जाते थे हम सिनेमाघरों में।''
प्रश्न : उक्त अंश का रचनाकार कौन है ?
उत्तर : रचनाकार अनामिका हैं।
प्रश्न: उक्त अंश का आशय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर: कपयित्री कहती हैं कि यह देशप्रेम भी अजीब चीज है। शराब की तरह एक बार जिसे इसकी लत लग जाती है फिर लाख छुड़ाये छूटती ही नहीं-
आज गुलिस्तां में फैली है खुशबू तेरी यादों की
मौसम-ए-गुल है, हम हैं तन्हा दिल पर गहरा दाग लिए।
कवयित्री याद करती है उन दिनों की जब सिनेमा हॉल मे भी फिल्म की समाप्ति के बाद परदे पर राष्ट्रगान होता था तथा सारे दर्शक राष्ट्रगान के खत्म होने तक सावधान की मुद्रा में खड़े होकर उसका सम्मान किया करते थे, लेकिन अब तो वो गुजरे जमाने की कहानी बनकर रह गई है।
2. वैसे तो भारी-भरकम चीजों से मुझको
डर लगता है,
लेकिन वह मिल ही गया तो
मैंने उसे प्यार से देखा !
प्रश्न: रचनाकार का नाम लिखें।
उत्तर : रचनाकार अनामिका हैं।
प्रश्न: कवयित्री को कौन-सी भारी-भरकम चीज मिली ?
उत्तर: कवयित्री को देशप्रेम जैसी भारी-भरकम चीज़ मिली।
प्रश्न: किसने, किसे प्यार से देखा ?
उत्तर: कवयित्री को दिल की गहराई में खो गए देशप्रेम का आभास होता है। कवयित्री को भारी-भरकम चीजों से एक मय-सा लगता है। लेकिन देशप्रेम जैसी भारी-भरकम चीज को बहुत दिनों प्रसन्नता हुई कि यह आज भी उसके दिल के किसी कोने में जीवित है। इसीलिए कवयित्री ने अपने अंदर के के बाद पाकर उसे देशप्रेम को प्यार भरी नजरों से देखा।
कहने का भाव यह है कि आज़ादी के पहले जो देशप्रेम हमारा सर्वस्व (सब कुछ) हुआ करता था, आज वही न जाने कहाँ खो गया है।
3.धीरे-धीरे क्योंकर
छीजने लगा सारा आवेग ?
अब जाने भी दीजिए, देखिए, सुनिए –
'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा',
यह धुन जो मोबाइल की है-
क्या आपकी जेब से आ रही है ?
प्रश्न: प्रस्तुत अंश कहाँ से लिया गया है?
उत्तर: प्रस्तुत अंश अनामिका की कविता 'देशप्रेम' से लिया गया है।
प्रश्न : 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' किसकी रचना है?
उत्तर : मशहूर शायर इकबाल की रचना है।
प्रश्न: प्रस्तुत पद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर : कवयित्री सोचती है कि देशप्रेम, तिरंगे को लेकर आम आदमी के दिल में जो भावना थी वह क्यों कर धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। अब मोबाइल के कालरट्यून पर 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा सुन-सुनाकर ही हम अपने देशप्रेम को देखते दिखाते हैं। जेब से आनेवाली यह पुन दरअसल हमारी देश भक्ति का परिचायक नहीं, औपचारिकता निभाने का सूचक है। अगर यही हाल रहा तो न जाने आने वाले दिनों में देश-प्रेम, देशभक्ति जैसे शब्द भी अतीत की चीज बनकर रह जाएंगे।
दीर्घउत्तरीय प्रश्न —
1. 'देश-प्रेम' कविता का मूल भाव लिखें।
अथवा, 'देश-प्रेम' कविता में निहित कवयित्री के संदेश को लिखें।
अथवा, 'देश-प्रेम' कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए ।
अथवा, 'देश-प्रेम' कविता का सारांश अपने शब्दों में लिखें।
उतर : जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं,
यह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
जन्मभूमि के प्रति निष्ठा रखना मनुष्य का प्राकृतिक गुण है। जिसकी धूली में लोट-लोट कर हम बड़े हुए हैं, जिसने हमें रहने के लिए अपने अतुल अंक में बसाया, उसे भुला देना मातृभूमि के प्रति, राष्ट्र के प्रति कृतघ्नता है। अपनी इन्हीं भावनाओं को कवयित्री अनामिका ने अपनी कविता 'देश-प्रेम' में व्यक्त किया है।
कवयित्री जीवन की एक साधारण-सी बात से कविता की शुरुआत करती है। अक्सर जब हमारे कोट है पुराने पड़ जाने पर अंदर का अस्तर फट जाता है तब कभी छुट्टे पैसे जेब में जाने के बजाय इन्हीं फटे अस्तरों है किसी कोने में जा बैठते हैं।
कवयित्री कहती हैं कि कभी फटे अस्तर की गहराई से अचानक ही उंगलियाँ उस घुट्टे पैसे से छू जाती है,जिसे भुला दिया गया था। ठीक उसी प्रकार अचानक ही कवयित्री के हृदय के किसी कोने से उन्हें भरकम चीज मिली जिसका नाम है- देशप्रेम ! न जाने वह हृदय के किस कोने में खो गया था।
चीज को बहुत दिनों के बाद पाकर उसे प्रसन्नता हुई कि वह आज भी उसके दिल के किसी कोने में जीवित वह मारी- है। इसलिए कवयित्री ने अपने अंदर के देशप्रेम को प्यार भरी नजरों से देखा।
कवियित्री को छब्बीस जनवरी की यह ठंडी सुबह आज भी याद है। उनके तकिए के नीचे ट्रांजिस्टर खुला रह गया था। तभी उसपर राष्ट्रगान आने लगा। कम्बल के नीचे दुबकी कवयित्री ने एक चार तो उसे अनसुना करने की सोची। फिर अचानक न जाने मन में क्या आया कि वह जाड़े की उस सुबह में कम्बल फेंककर सावधान की मुद्रा में खड़ी हो गई।
कवयित्री याद करती हैं उन दिनों की जब सिनेमा हॉल में भी फिल्म के बाद परदे पर राष्ट्रगान होता था तथा सारे दर्शक राष्ट्रगान के खत्म होने तक सावधान की मुद्रा में खड़े होकर उसका सम्मान किया करते थे, लेकिन अब तो वो गुज़रे जमाने की कहानी बनकर रह गई है।
कवयित्री उन दिनों को याद करती हैं जब सिनेमा जगत में हेलेन के सभ्य, साफ-सुथरे कैबरे और हास्य, अभिनेता मुकरी की भोली फुलझड़ियों से जनता का मनोरंजन हुआ करता था। बात केवल मनोरंजन तक ही सीमित नहीं थी। फिल्म के समाप्त होने पर 'द एंड' दिखाई देने के तुरंत बाद लहराते हुए तिरंगे के चित्र के साथ जनगणमन........ 'राष्ट्रगान शुरू होता था। राष्ट्रगान के समाप्त होने तक सभी दर्शक अपनी-अपनी सीटों से उठकर सावधान की मुद्रा में खड़े रहकर उसका सम्मान करते थे।
कवयित्री सोचती है कि देशप्रेम, तिरंगे को लेकर आम आदमी के दिल में जो भावना थी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। अब मोबाइल के कालरदवून पर 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' सुन- सुनाकर ही हम अपने देशप्रेम को देखते-दिखाते हैं। जेब से आनेवाली यह घुन दरअसल हमारी देशभक्ति का परिचायक नहीं, औपचारिकता निभाने का सूचक है।
अंत में यह कहा जा सकता है कि हम देश के प्रति अपने प्रेम, अपने कर्तव्य को न मुलाएं। आज देश के उत्थान के लिए हमें ऐसे देशभक्तों की आवश्यकता है, जो अपना तन, मन धन सब कुछ देश के चरणों पर बढ़ाने को तैयार हों, स्वार्थी या अवसरवादी देशभक्तों की आवश्यकता नहीं।